बुधवार, 21 सितंबर 2016

सुरत स्वामी संवाद

1. वास तुम्हारा कौन लोक में,
    यहाँ आए तुम कौन मौज में।।

 ~ सुरत अपने स्वामी से प्रश्न करती है कि आप कुछ अपने भेद बताए कि आप कौन हैं,
      कौन? हमने आपको अपना बना तो लिया, हम आपको छोड़ नहीं सकते हैं आप भी
      हमको नहीं छोड़ोगे लेकिन स्वामी से प्रश्न है कि आप कैन हैं।
      कहते हैं कि स्वामी पहला प्रश्न है कि आप किस लोक के वासी हैं, किस लोक में रहते
      हैं? किस धाम में रहते हैं, कहाँ से आप आए हैं? किस मौज में, किस इच्छा में, क्या करने
      के लिए मृत्युलोक में आए,कहाँ आपका वास है, क्या इच्छा लेकर के क्या करने यहाँ
      मृत्युलोक में आये स्वामी इसका उत्तर दीजिए।
2. देश तुम्हारा कितनी दूर,
    खोजे सूरत न पावे मूर।।

 ~अब जीवात्मा कहती है दोनों आँखों के पीछे जो बैठी हुई है कि हमने सब जगह खोजा,
    तलाश किया,ढूँढा, वो पूजा की, स्नान किया उपासना काण्ड किया, दान दिया, पूजा
    किया, त्याग किया, बैराग किया, तपस्या कि वर्त किए सब कुछ किये लेकिन कहीं
    भी  हमारा पता ठिकाना नहीं लगा। कहते हैं कि भाई आप कहाँ के रहने
    वाले हो? क्यों आए हो और आप यहाँ से इस मृत्युलोक से कितनी दूर आपका देश
    है? आप कहाँ के वासी हो फिर ये हमको सब, क्यों आये, किस मौज में आए,
    कहाँ के वासी हो? फिर यहाँ आए। तो यहाँ से मृत्युलोक से वहाँ आपका देश
    कितनी दूर है? बहुत प्यार से पूछ रही है, प्रश्न कर रही है कि इसका भी हमको
    उत्तर दीजिये।
3. मैं बिछुड़ी तुमसे कहो कैसे,
    देश पराये आई जैसे।।

  ~ कहती है कि मैं पराये देश में क्यों आई और मैं आपसे क्यों बिछुड़ गई? इसका भी मुझको
   सही उत्तर दीजिये। मुझे क्यों आपने अलग कर दिया? आपके देश से पराये देश में क्यों आई
   क्यों अलग कर दी गई?
4. मेरा हाल भिन्न कर गाओ,
    देश आपना मोहिं लखाओ।।

 ~ और ऐसे नहीं भिन्न भिन्न विधि-विधान के साथ यानी आप अपना मतलब मेरा भेद
   बताइये। कि कैसे मैं आईं क्यों भेजी गई क्यों काल के देश में डाली गई और कर्मों में भ्रमा
   दी गई? फिर वहाँ से क्यों निकाली गई? पूरा विधि-विधान से भिन्न-भिन्न मतलब इस
   तरह से हमको समझाइये ताकि हमको ये सद्बुद्धि और हमारी शंका दूर हो जाएं कि
   हमारे प्रश्न का उत्तर हमको मिल जाए। और हमारी ठीक-ठीक समझ में आ जाए।
5. मन तन संग पड़ी मैं कब से,
    दुख पाये बहु तक मैं जब से।।

 ~ कहते हैं कि मन के साथ मैं जो यहाँ आकार के बाँध दीं गई मैंने इस तन के मन के साथ कितने
   कितने दुःख बहुत-बहुत से पाये, ये संतों के साथ किया गया क्यों इस दुःख में लाया गया?
   क्यों इस तन के साथ मन के साथ बाँधी गई? फिर मेरे ऊपर में ये कर्म बन्धन क्यों डाल दिया
   गया कि ये पाप है, ये पुण्य है, और मैंने जो  कुछ भी किया, इतने दिनों से भोग रहा हूँ,
   चिल्ला रहा हूँ रो रहा हूँ और मेरा कोई सहारा या उपाय कैसे होगा, ये भी ठीक-ठीक बताइये।
7. क्यों भूली मैं देश तुम्हारा,
    आय पड़ी परदेश निहारा।।
 
~अब तो जीवात्मा कहती है कि हे स्वामी? ये भी बताइये कि मैं आपका देश क्यों भूल गई,
   क्यों ऐसी जरूरत पड़ी कि बिलकुल ही देश को खो बैठी और परदेश को अपना देश
   समझने लगी? यहाँ इनको क्यों अपना साथी समझने लगी? और इसमें से हमारा कोई भी
   साथी नहीं रहा सब किनारा अपने-अपने स्वार्थ में कर गए और में इतने दिनों से यहाँ
   चौरासी और नर्को में भोग रहा हूँ, रो रहा हूँ, चिल्ला रहा हूँ। तो मैं आपका देश क्यों भूल
   गई?
8. पाताल बसो या मृत्युलोक में,
    स्वर्ग बसो या ब्रह्मलोक में।।

 ~ अब वो सुरत कहती है कि स्वामी क्या आप पाताल लोक में रहते हैं, या मतलब मृत्युलोक
   में आप रहते हैं, आप स्वर्ग लोक के वासी हैं या बैकुण्ठलोक के वासी हैं? तो मुझे बताइये
   कि किस लोक में आप रहते हैं, इनमें रहते हैं कि नहीं पाताललोक में, मृत्युलोक में और
   स्वर्गलोक में, बैकुण्ठलोक में कहाँ के वासी हैं? ये मुझे विधि-विधान से भी समझाइये।
9. इन्द्रपुरी या शिव मुकाम मैं ,
    कृष्ण लोक या राम लोक में।।
 
~कहते हैं कि वो इन्द्रपुरी में या शिवपुरी यानी निरंजन भगवान के यहाँ आप बसते हैं या
   कृष्णलोक में मतलब रहते हैं, मतलब या प्रकृतिलोक में रहते हैं या पुरुष लोक में किस
   लोक के आप वासी हैं वो मुझको अलग-अलग विधि-विधान से मुझे समझा दीजिए तब मेरी
   शंका जाएगी। और आप अब मिल गए हैं ये मुझे सब सच्ची बात बताइये।
 
10. कृष्ण लोक या राम लोक में,
      प्रकृति लोक या पुरुष लोक में।।

 ~ कहते हैं कि कृष्णलोक या रामलोक या प्रकृति लोक या पुरुषलोक में क्या उस धाम के आप
   रहने वाले हैं जो यहाँ आए हैं? क्या जरूरत है आपको यहाँ आने की पड़ी? किसलिये आप
   आए?
11. या तुम व्यापक सभी लोक में,
      चार खान चर अचर थोक में।।
  ~ और वो पूछती है कि स्वामी क्या आप सब जगह व्याप्त हैं सब लोकों में व्याप्त हैं या
     मतलब है कि नर्को में भी आप व्याप्त हैं किस जगह पर रहते हैं और कहाँ के रहने वाले हैं?
    ये सब अलग-अलग भिन्न-भिन्न हमको ये विधि-विधान से हमको बताइये।
12. क्यों मोहिं डाला काल लोक में,
      अति भरमाया हर्ष शोक में।।
  
 ~ और ये भी बताइये कि आपने मुझको काल के लोक में क्यों डाल दिया क्यों फँसा दिया मैं यहाँ
   आ गया हूँ मुझे पता ही नहीं है कि मैं कहाँ का हूँ, चौरासी में और नर्को में मुझे नाना प्रकार की
   यातनायें दी जाती हैं तो मुझे यहाँ अपने काल के देश में क्यों डाला?
13. अब क्यों आए मोहिं चितावन,
      रूप धरा तुम अति मनभावन।।
 
 ~अब वो बड़े प्यार से कहती है कि स्वामी अब आप बहुत दिनों के बाद मुझको चिताने के लिए
  आए हो, इसमें कोई संदेह नहीं है कि रूप जो आपने धारण किया है मनमोहक और आकर्षक
  है, बहुत मन मोहित रूप धारण किया है, और आकर्षणमय ये तो मैं जान गई, ये तो मैं समझ
  गई लेकिन इतने दिनों के बाद आप आए हैं क्यों? सब तरह कि प्रश्न ऊँचे नीचे सुलझाने
  के हवाले करने के सब पूछ रही है कि हमको ये सब बताइये।

14. मैं दासी तुम चरण निहारे,
      भेद देव तुम  अपने सारे।।    
   
 ~ अब बहुत प्यार से कहती है कि मैं दासी हूँ,मैं सेवक हूँ मैं आपको छोड़ के जा नहीं सकती। मुझे सब भेद जब मैं आपके चरणों मैं बैठकर चरण निहार रही हूँ तो मेरी ये शंका यही दूर कर दिजिए और पूरा पूरा अपना जो भी गोपनीय भेद हो वो मुझे सुनाइए।

15. तब हंस शब्द स्वामी बोले, 
      सुनो सुरत तुम मैं कहुं खोले।।                                                     

~अब वो महापुरूष बड़ा प्रसन्न हुए इस तरह के प्रश्न सुनकर के कि इसने प्रश्न किया है उत्तर लेने क लिए तो बहुत प्रसन्न हुए वो तो सुरत शब्द रूप हो गई । वो बहुत प्रसन्न होकर के बोले और वो सब विधी-विधान के साथ उस सुरत को समझा रहे हैं और उसके साथ में पूरा मजमा ,पूरा समाज बैठकर के उस प्रश्न के मतलब एक उत्तर को सब के सब सुनेंगे, और उसको भी और सबको मतलब प्रश्न तो उसका नहीं था सबका था और सबके प्रश्न के उत्तर उसके प्रश्न से सबको मिल रहा हैं।

16. जो तू पूछे भेद हमारा। 
      कहूँ  सभी अब कर विस्तारा।। 

--कहते हैं कि सुूरत अगर तू मेरा भेद पूछती है तो मैं  अपना सभी भेद  विस्तार के साथ तुझको  बताये देता हूँ, उसको तू अच्छी तरह ध्यान पूर्वक सुन। 

17. मैं हूँ अगम अनाम अमाया। 
      रहूँ  मौज में  अधर समाया।। 

महापुरुष कहते हैं मैं अगम, अनाम, अमाया मैं,मेरा  कोई  रूप नहीं,  मेरा कोई नाम नहीं मेरा कोई धाम नहीं। मैं इन सबसे अलग रहता हूँ।अगम, अनाम, अमाया हमारे आगे न कोई माया हैं  न कोई काल हैं  न वहाँ  कोई  कर्म हैं । किसी तरह की गन्दगी नहीं है, मैं वहाँ का रहने वाला हूँ। 

18.मेरा भेद न कोई पावे। 
     मैं  ही कहूँ  तो  कहन में  आवे।। 

अब वो महापूुरुष कहते हैं कि सुूरत ? मेरा भेद तो कोई जानता नहीं। मैं अगर किसी को सुनाऊँ तभी तो किसी को समझ में आ.सकता है। और जो मेरे पीछे जो गोपनीय यहाँ संत हैं कहते हैं  उनको तो कोई जानता नहीं।  एक दफे भक्तों ने अपने स्वामी से प्रश्न किया कि महाराज आप बार - बार गोपनीय संतो का जो विवरण कहते हैं वो किस प्रकार का है ? तो उन्होंने कहा कि चलो मेरे साथ मैं तुम्हें ले चलूँ और तुमको दिखा दूँ ,तो गए ले गए , दूर बैठे कहने लगे देखो वो गोपनीय संत हैं। देखो हल चला रहे  हैं। पूरे गोपनीय हैं इनको कोई नहीं जानता । मैं तुमको इनका परिचय तुमको बताये देता हूँ कि ये पूरे हैं और इनको ये मालूम है कि ये क्या हैं, और हमको मालूम है कि ये  क्या हैं।  किन्तु इनका भेद कोई नहीं जानता। तो एक भक्त पीछे से जब वो बता करके चल पड़े वो रूक गया और वो हल चला रहे थे।वहाँ वे ले गए और बैलों को उन्होंने पानी पिलाया, चारा डाला तब तक ये पहुंच गया।तो उन्होंने उससे कहा कि तुम यहाँ क्यों आए हो ? तुम जाओ वो पूरे हैं,  वो अधूरे नहीं हैं वो पूरे हैं। और अब कभी मत आना और कभी कुछ कहना नहीं और चले जाओ।जब यहाँ आए तो उससे पूछा था कि तुम वहाँ क्यों गए थे ?  उन्होंने क्या कहा ?  कहने लगे पूरे हैं। तो तुम वहाँ क्यों चले गए ? तुमको पहचान कराई थी कि वो गुप्त रहते हैं किस तरह से रहते हैं इनका भेद कोई नहीं जान सकता। ये सारी अन्तर मण्डलों की, सारी सम्भाल करते हैं और भक्त वत्सल बनकर ये मतलब है कि  हर समय सब जगह ये  देखा करते हैं। और किस     तरह से रहते हैं इनका रहन-सहन और भेष इस तरह का है कि इनको कोई पहचान नहीं सकता। सही बात है उनको कौन जान सकता है। ये उनको जानते हैं वो उनको जानते हैं। और ये सब ऊपर मिलते हैं। तो पूछती है कि हे स्वामी भेद बता दिीजिए और विधि-विधान से ताकि हमारा ये संदेह सब का दूर हो जाए। तो कह रहे हैं कि वो तो मतलब ये है कि एक अगम, अनाम, अमाया मेरा वहाँ कोई भी भेद नहीं जानता और मैं ही अगर कुछ  कहूँगा तो किसी की कुछ  समझ में आएगा  सकता। 
   
 
19. प्रथम अगम रूप मैं धरा ।
      दूजा अलख पुरूष हुआ न्यारा ।।                                                                                               
अब उन्होनें बड़े विधि-विधान से समझाया ।जब अनाम था अपार था अरूप था तो मैंने प्रथम रूप अपना धारण किया वो अरूप है और अगम लोक निर्माण करके यानी स्थापित करके वहॉ अगम पुरूष को बैठा दिया । तीसरा मेरा रूप है सतरूप । सतरूप को मैंने धारण किया और सतलोक में सतपुरूष को बैठा दिया । ये तीनों लोक निज रूप हैं । ये तीनों लोकों में सतपुरूष , अलखपुरूष , अगमपुरूष ये मेरे तीनों के तीनों निज रूप हैं । मैने ये तीनों लोक बनाकर के और कितने युगों और कितने कल्प , इसकी न आज तक गिनती हुई है और न गिनती हो सकती है । और मैं इन सबसे अलग हूॅं । इनमें मेरा पूरा रूप और इनमें कोई किसी तरह का यानी बन्धन नहीं है और किसी तरह का कहीं भी रेशे मात्र क्षणमात्र भी बन्धन नहीं हैं । ये मेरा निज रूप है ।


20. तीसर सतपुरूष मैं भया ।
      सत्तलोक मैं ही रच लिया ।।

कहते हैं कि तीसरा मैं सतपुरूष मतलब और वो सतलोक की रचना मैनें की और वहाॅं सतपुरूष को स्थापित कर दिया । अब ये तीनों लोक वैसे के वैसे और वह अनामी लोक सबसे अलग है । लेकिन ये तीनों लोक उसी अनामी पुरूष की मौज से ही ये तीनों लोक स्थापित किए हुए हैं और तीनों में उनका निज रूप विराजमान है । सतपुरूष , अलखपुरूष और अगमपुरूष अनामीपुरूष से अलग ।


21. इन तीनों मे मेरा रूप ।
      यहाॅं से उतरी कला अनूप ।।

अब वो कहते है महापुरूष हे सुरत ! इनमें मेरा तीनों में रूप है। मेरा निज रूप है । लेकिन कुछ उधर नहं किया । सतलोक से फिर वहाॅं से धारा नीचे को गई । उधर से मेरा कोई विस्तार नहीं । अब वो सतपुरूष विस्तार करेंगे । मेरी रूप की एक सूरत यानी मैंने जो सतलोक में स्थापित कर दिया है वो मतलब है कि उसका नीचे का सारा विस्तार करेंगें । मैं तो यहाॅं अलग रहता हूॅं ।कहते है सतलोक से यानी सतपुरूष से अरूप कला वहाॅं से उतरी शब्द द्वारा यानी जोरों का सतपुरूष के मुखारबिन्द से निकला और उसने न मालूम कितने बेशुमार मण्डल यानी बना दिया , आकाश बना दिए और यहीं से फिर उतर सतलोक में वो खचाखच सुरतें भरी हुई हैं । वहाॅं से सुरत को उतार देंगे सतपुरूष और जगह जगह पर फिर स्थापित कर देंगे । पहले शब्द उधर से आया । उधर से धार सीधी चलकर के आई और यहाॅं पर नीचे आकर के टिक गई । और खाली वो शब्द की धार जो है इस तरह से चक्कर मार रही ऐसे नाच रही अब वो बहुत दिनों और मुद्दतों के बाद ये सारे आकाश बने रहेंगे उनके शब्द के व्दारा फिर वो सुरत को खीचेंगे उसी शब्द पर तो उसका ठेका बना देंगे ये इसका ठेका ये महाकाल का ठेका ये पार ब्रह्म का ठेका ये ब्रह्म का ठेका ये निरंजन भगवान का ठेका ये सब बना देंगे । और उस वक्त में कोई किसी को कुछ नहीं बस केवल इनको बैठालकर और ये वहाॅं बैठकर के उसी शब्द के उस ठेके पर स्थान पर और सब ध्यान करेंगे एक लक्ष्य होकर के ध्यान करेंगे उस समय पर कोई रचना नहीं क्योंकि सुरत के बगैर कोई रचना नहीं हो सकती है । तो ध्यान निश्चित होकर के उसकी तपस्या करेंगे कितने युग और कल्प बीत जाऐंगे तप करते -करते फिर कभी जाकर के सतपुरूष प्रसन्न होंगे ।                                                                      

22. यहाॅं तक निज कर मुझको जानो ।
      पूरन रूप मुझे पहचानों ।।    

कहते है सतलोक में मैं पूरा अलखलोक में अगमलोक में भी पूरा हूॅं । मेरा निज रूप है।वहाॅं कोई किसी तरह की विरोधी नहीं है और मैं अलग हूॅं मेरा इनमें रूप है । यहाॅं किसी को किसी तरह का बन्धन नहीं है । जो भी सुरतें वहाॅं पहुॅंच जाएॅंगी सब प्रसन्न सब आजाद । फिर लौटकर न उनको कभी आना है न जायेगे । वो पहुॅंच गई अपने घर में । यहाॅं तक मुझको जानो और इसके बाद ये फिर विस्तार होगा नीचे सतलोक के बाद ।  

23. अंश दोय सतपुरूष निकारी ।
      ज्योत निरंजन नाम धरारी ।।     

और जो शब्द उन्होंने जोर का जो ध्धकार निकाली थी वो वहाॅं पर दो सुरतें निकाली एक माया की और पुरूष की। एक उन्होंने पुरूष आद्या महाशक्ति हो गई और निरंजन भगवान पुरूष हो गए । इनको ऊपर से निकाल दिया और शब्द के व्दारा नीचे उतार दिया क्योेकि शब्द नहीं होगा तो नीचे डोरी नहीं होगी तो टिकेंगे कहाॅं ? टिकने की कोई जगह नहीं है । बस उसी डोरी पर उतार कर के और सहस्त्रदल कवंल में और वहाॅं एक ठेका बनाकर और नीचे आकर के चरण कमल रोक दिया और दोनों को इनको उतारा । एक का मतलब ज्योती रूप में और सहस्त्रदल कवंल में आकर के अलग - अलग उनके रूप एक माया के रूप एक पुरूष का रूप और सहस्त्रदल कवंल मे आकर बैठा दिया । एक माया का रूप और एक पुरूष का रूप ।                          


24. यह दो कला उतर के आई ।
      झंझरी व्दीप में आन समाई ।।    

अब वो कहते हैं वो कौन सा रूप है झंझरी व्दीप उसमें आकर के दोनों कलाए वहाॅं आकर
के उनकों बैठा दिया गया कि तुम दोनों यहाॅं रहो इसी जगह पर और तुमको सतलोक देश से अब निकाला जाता है । तो ये आकर के झंझरी व्दीप में सहस्त्रदल कवॅंल में आकर के बैठा दिया ।                                          

25. तीन लोक से मैं रहूॅं न्यारा ।
      चार पाॅंच छ: में विस्तारा ।।   
कहते हैं कि तीन लोक से मैं अलग हूॅं । मैं मृत्युलोक में हूॅं न पाताललोक में हूॅं न मैं स्वर्ग , बैकुण्ठलोक में हूॅं न मैं झॅंझरीलोक मे हूॅं । इन सबसे परे रहता हूॅं । वो बहुत प्यार से सुरत को समझा रहे हैं मैं इनमें किसी में नहीं रहता हूॅं सबसे अलग है मेरा देश ।         


26. तीन लोक एक बूंद पसारा ।

      सिंध रूप है अगम अपारा ।।

अब वो कहते हैं कि तीन लोक में हमारी निकाली हुई यानी एक बूंद रहती है एक बूंद के रूप में सुरतें यानी झंझरी व्दीप सहस्त्रदल कवॅंल में ये वहाॅं आकर के टिका दी गई उसमें ये तीनों लोक ये निमार्ण हुए ,मेरी एक बूंद रहती है , और मैं तो अगम अपार हूॅं मेरा कोई भेद नहीं जान पाया । मेरी कोई पैमाइश नहीं कर सकता । मैं अलग रहता हूॅं । मेरी एक बूंद रहती है तीन लोक में उसका ये सारा का सारा ये सब पसारा है ।                                                                                                              














          

रविवार, 18 सितंबर 2016

जय गुरुदेव नाम प्रभू का

जो व्यक्ति काल के विरुद्ध खड़ा होता है, उसे चतुर्दिक से आघात सहने पड़ते हैं, सम्पूर्ण अस्तित्व को मिटा देने वाले आघातों से जब वह अक्षय शेष रह जाता है, तो जनमानस इस अनुमान से उसकी और दौड़ पड़ता है, कि उसमें कुछ असाधारण अवश्य है। उसके विषय में तरह तरह की किंवदन्ती बनने लगतीं है, निरन्तर वह असाधारण होता जाता है, यहाँ तक कि उसे ईश्वरीय अवतार भी मान लिया जाता हैं।

                                             राज.........